आचार्य श्री108 प्रमुखसागर जी महाराज: जीवन दर्शन एवं समाज-राष्ट्र को अवदान : डॉ. अखिल बंसल
परिचय :
जैन धर्म की दिगंबर परंपरा में आचार्य प्रमुखसागर जी महाराज एक ऐसे संत हैं, जिन्होंने युवावस्था में ही सांसारिक मोह त्यागकर आध्यात्मिक पथ पर प्रस्थान किया। वे आचार्य पुष्पदंत सागर जी महाराज के प्रमुख शिष्यों में से एक हैं, जिनकी प्रेरणा से उन्होंने न केवल व्यक्तिगत साधना को गहनता प्रदान की, बल्कि जैन धर्म को वैश्विक पटल पर पहुँचाने का अभियान चलाया। उनका जन्म 28 सितंबर 1973 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक साधारण जैन परिवार में हुआ था। पिता श्री आनंद कुमार जैन एवं माता श्रीमती मिथलेश देवी जैन के सान्निध्य में उनका बचपन बीता। मात्र 22 वर्ष की आयु में, 11 दिसंबर 1995 को उन्होंने आचार्य पुष्पदंत सागर जी के कर कमलों से मुनि दीक्षा ग्रहण की, जो उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
आचार्य श्री 108 पुष्पदंत सागर जी स्वयं आचार्य विद्यासागर जी एवं आचार्य विमल सागर जी की परंपरा से जुड़े हुए हैं, जो जैन आचार्य परंपरा की एक मजबूत कड़ी हैं। प्रमुख सागर जी ने गुरु की कृपा एवं कठोर तपस्या से आचार्य पद प्राप्त किया, जो दिगंबर जैन समाज में एक क्रांतिकारी संत के रूप में उनकी पहचान को मजबूत करता है।
जीवन दर्शन :
आचार्य प्रमुखसागर जी का जीवन दर्शन जैन तत्त्वज्ञान पर आधारित है, जहाँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के पंच महाव्रतों का कठोर पालन ही जीवन का मूल मंत्र है। उनका विश्वास है कि आत्म-शुद्धि ही परम लक्ष्य है, और यह शुद्धि केवल संयम एवं तप से ही संभव है। वे कहते हैं कि “सांसारिक बंधनों से मुक्ति तभी मिलती है जब मनुष्य स्वयं को आत्म-साक्षात्कार के लिए समर्पित कर दे।” उनका दर्शन क्रांतिकारी है, क्योंकि वे जैन धर्म को केवल एक संप्रदाय के रूप में नहीं, बल्कि वैश्विक जीवन शैली के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
उनके अनुसार, जीवन का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत मोक्ष नहीं, अपितु परोपकार भी है। वे अनेकांतवाद (स्याद्वाद) को जीवन का आधार मानते हैं, जो विविधताओं में एकता का संदेश देता है। प्रवचनों में वे युवाओं को प्रेरित करते हैं कि आधुनिकता के दौर में भी जैन सिद्धांतों को अपनाकर नैतिक जीवन जिया जा सकता है। उनका दर्शन पर्यावरण संरक्षण, शाकाहार प्रचार एवं मानसिक शांति पर केंद्रित है, जो आज के तनावपूर्ण समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। उन्होंने कहा है, “जैन धर्म कोई पुरानी किताब नहीं, बल्कि जीवंत जीवन का विज्ञान है।” इस दर्शन ने हजारों लोगों को संयम पथ की ओर प्रेरित किया है।
समाज को अवदान :
आचार्य प्रमुखसागर जी का समाज के प्रति अवदान असीम है। उन्होंने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक अभियान चलाए, जिनमें दीक्षा प्रदान प्रमुख है। मात्र तीन दशकों में उन्होंने सैकड़ों अनुयायियों को दीक्षा दी, जिससे जैन संघ का विस्तार हुआ। वे महिलाओं एवं युवाओं के लिए विशेष कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जहाँ अहिंसा एवं नैतिक शिक्षा पर बल दिया जाता है।
समाज सुधार के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने नशा मुक्ति, पर्यावरण संरक्षण एवं शिक्षा के लिए जागरूकता अभियान चलाए। विशेष रूप से, जैन तीर्थ स्थलों के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। वे पुष्पगिरी तीर्थ जैसे क्षेत्रों के निर्माण एवं प्रबंधन में सक्रिय रहे, जो आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, उनके प्रवचनों ने दिगंबर जैन समाज में एकता का संदेश दिया, जिससे विभिन्न संप्रदायों के बीच सामंजस्य बढ़ा। आज वे विश्व भर में जैन सम्मेलनों में भाग लेते हैं, जो समाज को धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कर रहा है।
राष्ट्र को अवदान :
आचार्य श्री 108 प्रमुखसागर जी का राष्ट्र प्रेम जैन दर्शन के ‘परदेशी’ भाव से प्रेरित है, जहाँ संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की शिक्षा दी जाती है। वे राष्ट्र निर्माण में नैतिक मूल्यों की भूमिका पर जोर देते हैं। उनके अनुसार, “राष्ट्र की प्रगति तब ही संभव है जब उसके नागरिक अहिंसा एवं सत्य के सिद्धांतों पर चलें।” उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर शाकाहार प्रचार अभियान चलाया, जो जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ।
राष्ट्र को समर्पित उनके प्रयासों में शिक्षा एवं युवा सशक्तिकरण प्रमुख हैं। वे स्कूलों एवं कॉलेजों में व्याख्यान देते हैं, जहाँ जैन दर्शन को राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता से जोड़ते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान उन्होंने आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर लोगों का मनोबल बढ़ाया। इसके अतिरिक्त, वे जैन साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति के संरक्षण में योगदान दे रहे हैं। उनका वैश्विक दृष्टिकोण भारत को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श के माध्यम से विश्व गुरु बनाने में सहायक है।
निष्कर्ष :
आचार्य प्रमुख सागर जी महाराज का जीवन एक प्रेरणा स्रोत है, जो दर्शाता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने दर्शन से समाज एवं राष्ट्र को दिशा प्रदान कर सकता है। आचार्य पुष्पदंत सागर जी के शिष्य रूप में उन्होंने गुरु परंपरा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। आज, जब विश्व नैतिक संकट से जूझ रहा है, उनके अवदान हमें स्मरण कराते हैं कि सच्ची प्रगति तप, त्याग एवं सेवा से ही संभव है। जैन समाज एवं राष्ट्र को उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए, हम आशा करते हैं कि उनकी प्रेरणा से नई पीढ़ी आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो।