पेट्रोल की कीमतें या मुनाफे की राजनीति..?
जनता पर टैक्स का बोझ, कंपनियों की मनमानी, और सरकार की चुप्पी
विशेष लेख | ✍️ प्रबल जैन
इंदौर | भारत में पेट्रोल अब केवल ईंधन नहीं, एक जटिल अर्थनीति, कर नीति और कॉर्पोरेट-सरकारी संबंधों का केंद्र बन चुका है।
जहाँ एक ओर मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में पेट्रोल ₹106.50 प्रति लीटर बिक रहा है, वहीं दूसरी ओर पड़ोसी देश भूटान में वही पेट्रोल ₹63.12 प्रति लीटर की दर से उपलब्ध है — और यह भूटान को भेजा भी भारत से ही जाता है, इंडियन ऑयल जैसी सार्वजनिक तेल कंपनियों द्वारा।
यह आंकड़ा न केवल चौकाने वाला है, बल्कि एक गंभीर प्रश्न भी उठाता है:
क्या भारत में पेट्रोल के दाम वाकई वैश्विक बाजार और लागत से निर्धारित होते हैं, या यह सरकार और तेल कंपनियों की साझेदारी में चल रही एक ‘मुनाफा नीति’ है?
टैक्स स्ट्रक्चर: सबसे बड़ा कारण
भारत में पेट्रोल की मूल लागत लगभग ₹42–₹44 प्रति लीटर होती है। इसके ऊपर केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क (excise duty) और राज्य सरकारों द्वारा मूल्यवर्धित कर (VAT) लगाया जाता है। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश में इन दोनों को जोड़ दें तो टैक्स ही ₹35–₹36 प्रति लीटर तक पहुँच जाता है।
इसका अर्थ यह हुआ कि आम नागरिक जितना पेट्रोल नहीं भरता, उससे अधिक सरकारों को टैक्स चुकाता है।
भूटान में यही टैक्स प्रणाली नाममात्र है — वहाँ पेट्रोल एक सार्वजनिक सेवा के रूप में उपलब्ध है, न कि एक मुनाफाखोरी के माध्यम के रूप में।
तेल कंपनियाँ और ‘सप्लाई कंट्रोल’ की रणनीति
बीते वर्षों में यह कई बार देखा गया है कि जैसे ही सरकार पर जनता का दबाव बढ़ता है और वह पेट्रोल-डीजल के दाम घटाने की कोशिश करती है, तेल कंपनियाँ ‘अंडर-रिकवरी’ और ‘अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के दाम’ का हवाला देकर सप्लाई पर नियंत्रण करने लगती हैं।
कई स्थानों पर पंपों पर पेट्रोल नहीं पहुँचा।
डिपो से वितरण धीमा या बंद कर दिया गया।
लंबी-लंबी कतारें लगीं, लेकिन मूल्य में राहत नहीं मिली।
सरकारें इन कंपनियों से कठोरता से बात करने में झिझकती हैं, क्योंकि अधिकतर ये कंपनियाँ ‘सरकारी स्वामित्व’ में होते हुए भी कॉर्पोरेट स्वतंत्रता का दावा करती हैं।
इसका परिणाम यह है कि एक लोकतांत्रिक देश में, जहाँ सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, वहाँ वह तेल कंपनियों के सामने ‘मूकदर्शक’ बन जाती है।
क्या यह नीति जनहित में है?
यदि सरकार कहती है कि तेल पर टैक्स आवश्यक है — तो सवाल यह है कि जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, और रोज़गार की नीतियों के लिए पैसा क्यों नहीं जुटाया जाता अन्य स्रोतों से?
क्यों जरूरी सेवाओं पर कर का बोझ इतना अधिक है कि एक आम मजदूर भी ₹100 लीटर पेट्रोल नहीं खरीद सकता?
क्यों भूटान, श्रीलंका, नेपाल जैसे देश भारत से आयात कर के भी कम कीमत पर पेट्रोल बेच पा रहे हैं?
समस्या का समाधान क्या हो सकता है?
1. पेट्रोल-डीजल को GST के दायरे में लाना: जिससे पूरे देश में एक समान और पारदर्शी कर प्रणाली बन सके।
2. तेल कंपनियों की जवाबदेही तय करना: विशेषकर जब वे सार्वजनिक उपक्रम हैं।
3. मूल्य निर्धारण प्रक्रिया में पारदर्शिता: प्रत्येक माह पेट्रोल-डीजल की कीमत का स्पष्ट ब्रेकअप सार्वजनिक हो।
4. जनता के हित को प्राथमिकता देना: तेल नीतियों को केवल राजस्व अर्जन का माध्यम न बनने दिया जाए।
समाप्ति विचार:
पेट्रोल एक अनिवार्य आवश्यकता है — न कि कोई विलासिता। यदि सरकार और कंपनियाँ इसे केवल लाभ अर्जन का साधन बनाती हैं, तो यह सामाजिक अन्याय की दिशा में एक बड़ा कदम है. “जनता जब सवाल पूछना छोड़ देती है, तभी कंपनीराज पनपता है।”
आज यह समझना आवश्यक है कि पेट्रोल की लड़ाई सिर्फ कीमत की नहीं, नीतियों और प्राथमिकताओं की है।
और जब तक जनता सवाल नहीं पूछेगी, जवाबदारी की उम्मीद भी व्यर्थ है।