इंदौर जैन समाज के अति उत्साहित समाजसेवी एक मुनि श्री को श्रद्धांजलि व एक मुनि श्री की अंत्येष्टि के बाद राजनेता का सम्मान कर देते …
इंदौर ! ( देवपुरी वंदना ) सभी को विदित है पौराणिक परंपरा अनुसार जैन धर्म सबसे प्राचीन व बड़ा धर्म है इसी प्रकार हमारे तीर्थ क्षेत्र भी हमारी ,आस्था ,श्रद्धा ,भक्ति के केंद्र हैं व रहेंगे ।
विगत कई दिनों से श्री सम्मेद शिखरजी की पवित्रता के अस्तित्व को लेकर विश्व भर में सड़क पर उतरे जैन सैलाब द्वारा सरकार विरोध में विभिन्न प्रकार के आंदोलन हुए । आंदोलन में कई राजनैतिक दलों के नेताओं ने भी समाज के समर्थन में हिस्सा लिया जिनकी सहभागिता को हम नमन करते हैं आंदोलन में श्रावक – श्राविकाओं ने भूख हड़ताल तक अनशन भी किये है । जिसे हम कभी नहीं भूल सकते हैं ।
इसके साथ – साथ राजस्थान की राजधानी जिसे हम पिंक नगरी के नाम से भी जानते हैं जहां सांगानेर सिंघी जी दिगंबर जैन मंदिर में आचार्य श्री 108 सुनील सागर जी गुरुदेव विराजमान हैं उन्हीं के संघ के समाधिस्ठ मुनि श्री 108 सुज्ञेय सागर जी विगत 25 दिसंबर से सम्मेद शिखर जी के अस्तित्व को बचाने आमरण अनशन पर थे जिन्होंने संस्कृति संस्कार के रक्षा के लिए बिना आहार अनशन पर रहकर अपने प्राण त्याग दिए थे ।
इसके बाद उन्हीं के संघ के मुनि श्री 108 समर्थ सागर जी
ने भी सम्मेद शिखरजी की पवित्रता का अस्तित्व बचाने व अपने तीर्थ की रक्षा के लिए अनशन करते हुए विगत रात्रि अपने प्राण त्याग दिए । उनकी अंत्येष्टि भी नहीं हुई थी कि इंदौर जैन समाज के अति उत्साहित हमारे समाजसेवी से थोड़ा सब्र भी नहीं रहा कि श्रमण संस्कृति के रक्षार्थ हमारे गुरुदेव की भावनाओं को समझते हुए अपने पद की गरिमा का थोड़ा मान भी रख लेते
राजनैतिक दल के किसी व्यक्ति विशेष का मान सम्मान करना हमारी संस्कृति तो है ही मगर अपन जिस धर्म , समाज से रिश्ता रखते हैं उसकी भी कुछ संस्कार व संस्कृति क्या कहती है यह एक विचारणीय प्रश्न है ?
सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि जिस पौराणिक प्राचीन तीर्थ क्षेत्र के लिए हम सड़कों पर उतरे हैं क्या वह पूर्व से ही ऐसा था या हमारी उदासीनता के चलते या हमारे परिजनों को सुविधा अनुरूप हमने उसे आंख मूंदकर सुख सुविधा युक्त बना दिया या बना रहे हैं ।
खैर विषय अभी सिर्फ यह है कि क्या हमारी समाज सेवा साधु- संतों से या हमारी धार्मिक, सामाजिक, संस्कार, संस्कृति से भी बढ़कर राजनेता के इर्द-गिर्द ही रह गई है या हमने उसे प्राथमिकता से बढ़ाकर हमने उसे दिनचर्या में डाल लिया है या हम
हमारे ही साथीयों को अपना वर्चस्व वैभव दिखाना चाहते हैं ।
यह एक गंभीर विषय बनता जा रहा है जिसका समाधान सिर्फ समाजसेवियों के पास ही है।